लौटना था या चलना था थोड़ा ओर?
हम डूब चुके थे 
हो चुके थे कुछ ऐसे 
कि खुद के ही रंगों से डर लगता कभी
तो कभी बस होती हैरानी
घमंड ने तोड़ा था हमें
शांति और एकाग्रता ने बनाया था 
खुद बिखर बिखर कर मोती होने की इच्छा 
पहले हंसी थी हम पर 
फिर समझाया बैठकर घंटों 
ना गुड़िया ना 
यूँ ना होना था 
शुरू कुछ ग़लत कर दिया तूने 
अब रास्ता भटकना अजीब क्यों लगता है? 
लकड़ी के एक शहर से निकलकर 
हरा भरा एक मैदान आएगा 
जहाँ एक छिपे बैठे कुँए का 
मीठा पानी पीते वक़्त 
हम याद करेंगे सारी शामें 
बारिशें, आवाज़ें कुछ 
खुशबुएं भी शायद 
और उस दिन या शाम या रात में
हम समझेंगे कुछ ऐसी बातें 
जो यूँ कभी समझ नहीं आई 
लौटेंगे या बैठेंगे बस 
रोएँगे या खोएंगे 
वो शाम ही तय करेगी।
 
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