मेरे होने और ना होने के बीच में
दीवार है एक
मैं तकती हुई उस दीवार को घंटो
समय को धकेलती हूँ आगे की ओर
फिर आगे से लौटना चाहती हूँ
वहीँ पीछे, शुरू किया था जहाँ
और यूँ
बीतते जाते हैं युग
सुबह उठकर रोज़
बनाना बस एक कप चाय
थोड़ा अजीब सा नहीं लगता?
सालों एक ही क्रम में, एक ही तरह से
एक ही स्वाद?
और ऐसी ही किसी सुबह में
पकडे हुए हाथ में कप
देखना कैलेंडर की तरफ
देखना कैलेंडर की तरफ
और रुकना थोड़ा, ठहरना
लाल स्याही से गोल करते हुए एक तारिख को
बुदबुदाना खुद में, 'एक साल ओर'
क्या सच में आप 40 बरस बीता चुके हैं धरती पर?
घडी वक़्त बजाती जाती है
और मैं जैसे रोक देना चाहती हूँ धरती को
कि अब कब तक लगाओगी चक्कर सूरज के?
मिटटी से खुशबू चुराना चाहती हुई मैं
फिर से आ बैठती हूँ
उसी दीवार के सामने
जो ना मेरे होने का सबूत है
ना मेरे ना होने की गवाह
मगर वो है
तो मुझे लगता रहता है
की शायद मैं भी हूँ
या शायद नहीं हूँ
मगर दीवार तो है
और इसलिए बहाव है
दीवार में कितने दाग हैं
कितनी दरारें
कितनी चपटी है दीवार
और कितनी है स्याही फैली हुई
सब याद हो चला है आँखों को
मगर मैं हूँ
या नहीं
और हूँ तो कौन?
बस यही एक याद है
जो नहीं याद आती
फर्श की तरफ मुड़कर
मैं पलटती हूँ फिर वापस दीवार पर
और दीवार मुस्कुराती है
सवाल जारी हैं
जवाब कोई नहीं !
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