Saturday, May 21, 2016

शाम

लौटना था या चलना था थोड़ा ओर?
हम डूब चुके थे
हो चुके थे कुछ ऐसे
कि खुद के ही रंगों से डर लगता कभी
तो कभी बस होती हैरानी



जीना

दोस्ती और प्यार में जब फर्क खतम होंगे
और हम जानेंगे खुद को खुद जैसा
जब सांस अटकेगी नहीं और आएगी पूरी
विश्वास होगा जब
बचपना होगा नहीं, मगर होगा
कायनात हमें साथ देखना चाहेगी
हम मिलेंगे



कहाँ

मिटटी खोदकर निकालो एक सपना
आधा मर चुका है जो
आधी सी साँस पर जीता हुआ
उम्मीद करता मरने की
पानी मांगता है मुझसे
तो कभी मौत



Thursday, May 12, 2016

दीवारें कितनी

मेरे होने और ना होने के बीच में
दीवार है एक
मैं तकती हुई उस दीवार को घंटो
समय को धकेलती हूँ आगे की ओर
फिर आगे से लौटना चाहती हूँ
वहीँ पीछेशुरू किया था जहाँ
और यूँ
बीतते जाते हैं युग



कलम

वैसे तो कलम के कई इस्तेमाल थे
कविता कहानी लिखने के अलावा
उससे चित्र बनाए जा सकते थे
उसे लेकर हाथ में यूँही
कभी दबाकर दांतों के बीच
सोचा जा सकता था घंटों
फिर पढ़ते हुए कोई किताब
वहीँ कहीं किसी पन्ने पर रुका जा सकता था
छुपाया जा सकता था कलम को
पन्नों की खुशबू के बीच



शोर

शोर से दबाए ये दुःख
अगर उठ खड़े हुए किसी दिन
तो हम लड़ नहीं पाएंगे इनसे
हमे अपने बच्चों को सीखाना होगा खेलना
और हंसना
और रोना भी
मगर कभी कबार