बचपन और बड़े होने के बीच
एक लट में उलझी पड़ी हूँ मैं
कभी इधर कभी उधर
खींचती, टूटती हूँ
तो कभी बस खूबसूरती बढ़ाती हूँ
बस तय कर पाना मुश्किल है थोड़ा
शहर, गांव, कस्बे,
आसमान
और समंदर
सब लांघ जाऊँ मगर
पहुँचूँ कहाँ, गर मालूम हो बस|