Wednesday, August 10, 2016

पहुँचना

बचपन और बड़े होने के बीच
एक लट में उलझी पड़ी हूँ मैं

कभी इधर कभी उधर
खींचती, टूटती हूँ
तो कभी बस खूबसूरती बढ़ाती हूँ
बस तय कर पाना मुश्किल है थोड़ा

शहर, गांव, कस्बे, आसमान और समंदर
सब लांघ जाऊँ मगर
पहुँचूँ कहाँ, गर मालूम हो बस| 



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