Thursday, August 4, 2016

लहर लहर

मैंने लहर को देखा है उठते हुए
लाँघते हुए पहाड़
तो कभी सिमटते हुए ख़ुद ही में
खोते हुए अस्तित्व कभी
तो रचते हुए भी

लहर कब उठी सबसे तेज़
ख़ुद को ही दिया अहसास ख़ुद का
जो चली हो धीमी कभी

लहर बताती सदा से मुझे एक बात सुनी सुनाई सी
मैं नहीं समझी
कभी नहीं

दिन जब आसमान में होता है
शाम बग़ल में
रात रचती सी हुई क़िस्से दिमाग़ में
छलाँग जैसे लगाती है लम्बी

गोल गोल घेरे बनाती वो काग़ज़ पर
बस बोलती कुछ नहीं।



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