मैंने लहर को देखा है उठते हुए
लाँघते हुए पहाड़
तो कभी सिमटते हुए ख़ुद ही में
खोते हुए अस्तित्व कभी
तो रचते हुए भी
लहर कब उठी सबसे तेज़
ख़ुद को ही दिया अहसास ख़ुद का
जो चली हो धीमी कभी
लहर बताती सदा से मुझे एक बात सुनी सुनाई सी
मैं नहीं समझी
कभी नहीं
दिन जब आसमान में होता है
शाम बग़ल में
रात रचती सी हुई क़िस्से दिमाग़ में
छलाँग जैसे लगाती है लम्बी
गोल गोल घेरे बनाती वो काग़ज़ पर
बस बोलती कुछ नहीं।
लाँघते हुए पहाड़
तो कभी सिमटते हुए ख़ुद ही में
खोते हुए अस्तित्व कभी
तो रचते हुए भी
लहर कब उठी सबसे तेज़
ख़ुद को ही दिया अहसास ख़ुद का
जो चली हो धीमी कभी
लहर बताती सदा से मुझे एक बात सुनी सुनाई सी
मैं नहीं समझी
कभी नहीं
दिन जब आसमान में होता है
शाम बग़ल में
रात रचती सी हुई क़िस्से दिमाग़ में
छलाँग जैसे लगाती है लम्बी
गोल गोल घेरे बनाती वो काग़ज़ पर
बस बोलती कुछ नहीं।
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