एक घर था एक दुआ थी
मैंने मांगी थी या उसने दी थी
मैं भूल चुकी थी रास्ते
और घर डूब चुका था
बारिशों के इस शहर में मैंने अकेले जीना सीखा
सुक़ून कमाना
और तब आये तुम
क्यों?
कितना वक़्त लगता है
खुद से कहने में
कि जो हुआ, ग़लत हुआ
मगर अब वो बीत चूका है
और कल या आज भी बल्कि
जो है, वो अलग है
कि उसे आज अलग आँखों,
नए नज़रिये से देखो
यूँ तो एक मिनट ही शायद
चंद सेकंड
पर कभी कभी एक साल, कभी कभी कई
घुटन के कईं नाम थे
एक जैसे सुबह
एक जैसे सोने की कोशिश
प्यार को खूंटी बनाकर
गले से टांगा मैंने उसपर खुद को
और रोना न आया जब कोसा काफी
माफ़ी मांगना खुद को माफ़ कर पाना नहीं था
कलेजा चीर कर बस मरा जा सकता था
साबित करना कुछ भी जैसे हंसना खुद पर