दुःख सारे दुनिया में पैदा नहीं होते
कुछ दुःख आपके भीतर ही जन्म लेते हैं
जैसे 13 महीने पहले दिवार पर टांगी कोई तस्वीर जब आप उतारते हो
तो जो दुःख आपके सीने से होकर पेट तक पहुँचता है
उसे आप दुनियावी दुःख नहीं कह सकते
उसके सारे सिरे आपके भीतर हैं
मैंने अक्सर देखा है लोगों को खुद से शिकायत करते हुए
कि उन्होंने किसी ख़ुशी को उसके होने के वक़्त में नहीं जिया
मैं ऐसा नहीं कह सकती
क्यूंकि मैंने ख़ुशी या दुःख
दोनों को पलकों से चुना है
हाथों में सहलाया है
और खूब, खूब जिया है
मुझे कभी शिकायत नहीं की क्यों मैंने उसके मेरे पास होने पर उसे नहीं देखा पूरा
मैं कभी नहीं भूली सजाना घर के किसी कोने को
चादर की सिलवटों में छिपी छुअन को
किसी छोटे कागज़ पर लिखे किसी शब्द या रेखा को
उनके मज़ाक में छिपे डर को पढ़ा और थपथपाया
मैंने सूरज को समंदर से ज़्यादा खुद में डूबते देखा है
समंदर को चाँद को ताकते और मचलते हुए भी
धरती को सूरज के चक्कर लगाते
मैंने देखा नहीं मगर समझा ज़रूर
किसी भी परछाई को अनदेखा ना किया
किसी रौशनी को भी नहीं
अपने होश में तो नहीं
मैं आँखों पर ठहरी हमेशा
सच जानने की किसी ख्वाहिश में नहीं
उस लम्हें के होने को जीने के लिए बस
मैंने एक एक चीज़ को छुआ जैसे दिल हो मेरा
घर के हर एक कोने को सींचा जैसे आत्मा मेरी
बावजूद इसके हर बार वो दिन आया
जब सब छोड़कर,
कभी भूलकर और कभी खुद में जकड़कर
उतारकर दीवार से हर तस्वीर
और हर याद, हर परवाह
मैं चल पड़ी किसी नए कोने
किसी नयी परछाई के लिए
नए सूरज, समंदर और चांद के लिए
इस सबके बीच जो दुःख बना
या सुख रहा
मैंने जिया भरपूर।
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