Friday, March 13, 2020

दुःख

दुःख सारे दुनिया में पैदा नहीं होते
कुछ दुःख आपके भीतर ही जन्म लेते हैं
जैसे 13 महीने पहले दिवार पर टांगी कोई तस्वीर जब आप उतारते हो
तो जो दुःख आपके सीने से होकर पेट तक पहुँचता है
उसे आप दुनियावी दुःख नहीं कह सकते
उसके सारे सिरे आपके भीतर हैं
उसका अस्तित्व आपमें ही रचा गया है

मैंने अक्सर देखा है लोगों को खुद से शिकायत करते हुए
कि उन्होंने किसी ख़ुशी को उसके होने के वक़्त में नहीं जिया
मैं ऐसा नहीं कह सकती
क्यूंकि मैंने ख़ुशी या दुःख
दोनों को पलकों से चुना है
हाथों में सहलाया है
और खूब, खूब जिया है

मुझे कभी शिकायत नहीं की क्यों मैंने उसके मेरे पास होने पर उसे नहीं देखा पूरा
मैं कभी नहीं भूली सजाना घर के किसी कोने को
चादर की सिलवटों में छिपी छुअन को 
किसी छोटे कागज़ पर लिखे किसी शब्द या रेखा को
उनके मज़ाक में छिपे डर को पढ़ा और थपथपाया 
मैंने सूरज को समंदर से ज़्यादा खुद में डूबते देखा है
समंदर को चाँद को ताकते और मचलते हुए भी 
धरती को सूरज के चक्कर लगाते 
मैंने देखा नहीं मगर समझा ज़रूर
किसी भी परछाई को अनदेखा ना किया
किसी रौशनी को भी नहीं 
अपने होश में तो नहीं

मैं आँखों पर ठहरी हमेशा
सच जानने की किसी ख्वाहिश में नहीं
उस लम्हें के होने को जीने के लिए बस
मैंने एक एक चीज़ को छुआ जैसे दिल हो मेरा
घर के हर एक कोने को सींचा जैसे आत्मा मेरी

बावजूद इसके हर बार वो दिन आया
जब सब छोड़कर,
कभी भूलकर और कभी खुद में जकड़कर
उतारकर दीवार से हर तस्वीर
और हर याद, हर परवाह 
मैं चल पड़ी किसी नए कोने
किसी नयी परछाई के लिए
नए सूरज, समंदर और चांद के लिए


इस सबके बीच जो दुःख बना
या सुख रहा
मैंने जिया भरपूर।



No comments:

Post a Comment