उसे चोट लगी थी
और वो ये बात मानने को तैयार नही था
इस ना मानने के चक्कर में
उसने कितने लोगों को चोट दी
रिसता था ज़ख्म और फैलता था
मगर ज़िद,
ये प्यारी ज़िद
गुरुर, ये कमबख्त गुरुर
दुनिया सफेद और काले में नहीं गढ़ी गयी थी
जितने रंग थे
उतने दर्द भी ज़रूर
किस दर्द का क्या इलाज है
हम अक्सर नहीं समझ पाते थे
और ग़लत दवाई लेते लेते ओर ओर बीमार होते जाते थे
तुमने सुना नहीं
मैंने कहा नहीं
लेकिन वो चोट
उसे छुपाओ मत, न ढको उसे
आने दोगे करीब थोड़ा तो मरहम भी लगा दूँ मैं
गले भी लगा लूँ मैं
मगर ये पागलपन
ऐसे नहीं जिया जाएगा ज़्यादा दोस्त
प्यार से कोई बात कही जाए तो समझ जाते हैं लोग
ऐसा कहा जाता है
मेरी आखिरी कोशिश उस राह में ये कविता है।
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