सच और झूठ में बस एक दीवार का फर्क नहीं है
ये एक मैदान है
जिसमे कईँ दीवारें हैं
कितनी लांघ पाएंगे हम
कितनी तोड़ पाएंगे
कोशिश करना चाहोगे क्या?
परतें हैं कई
और मैं बस हंसती जाती हूँ
झूठ, सब झूठ
क्यों डरती हूँ मैं
क्यों सोचती हूँ इतना
जवाब मांगते हैं मुझसे
और मैं सुन्न हुई जाती हूँ
मैं चली हूँ इस रास्ते पे पहले भी
मैंने जिया है ये वक़्त
सांसें ठहरी हैं पहले भी
मैंने सींचा है फसल को
नींदा भी है
सराहा भी और काटा भी है
मैं सँभली भी हूँ यहां और डूबी भी
और अंत में जब लौट रही थी आखिर
मैंने जाना था पानी में रहने वाली आग को..
अब एक ही सांस में
मैं कैसे दे दूँ इतने सारे जवाब तुम्हें?
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