Tuesday, January 28, 2020

पत्थर

जैसे कांटे में फंसती है मछली 
पत्थरों में फंस जाता है मन 

जैसे सपने में एक और सपना है
हक़ीक़त पर है एक परत फिलहाल 

जैसे झूठ बोला है खुद से मैंने शायद 
कि ये आवाज़ बारिश की नहीं मेरे रोने की थी उस रात 

कहने न कहने के बीच की एक भाषा 
जिसे मैंने बस ये सोचकर नहीं सीखा कभी 
कि जानता है जब ज़ुबाँ मेरी 
तो किसी और भाषा में क्यों करेगा वो बात 

कांटे में फंसी मछली 
और पत्थरों में फंसा मन 
तड़प तड़प कर मर जाते हैं आखिर। 



No comments:

Post a Comment