जैसे कांटे में फंसती है मछली
पत्थरों में फंस जाता है मन
जैसे सपने में एक और सपना है
जैसे झूठ बोला है खुद से मैंने शायद
कि ये आवाज़ बारिश की नहीं मेरे रोने की थी उस रात
कहने न कहने के बीच की एक भाषा
जिसे मैंने बस ये सोचकर नहीं सीखा कभी
कि जानता है जब ज़ुबाँ मेरी
तो किसी और भाषा में क्यों करेगा वो बात
कांटे में फंसी मछली
और पत्थरों में फंसा मन
तड़प तड़प कर मर जाते हैं आखिर।
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