Tuesday, July 4, 2023

सिवाय एक मेरे

एक घर था एक दुआ थी 
मैंने मांगी थी या उसने दी थी 
मैं भूल चुकी थी रास्ते 
और घर डूब चुका था 

बारिशों के इस शहर में मैंने अकेले जीना सीखा 
सुक़ून कमाना 
और तब आये तुम
क्यों? 

ख्वाब को एक चादर बनाकर लपेटा मैंने
तो कभी फेंक दिया 
तुम्हें समझा थोड़ा
तो कभी बस जाने दिया 
कब तक कितना सहा जा सकता है प्रेम भी। 

बारिश की आवाज़ में किस्से हैं
मेरे पास कहानियां सुनाने को
ज़ुबान जैसे गुब्बारा बन उड़ चुकी 
होंठ भूल चुके अस्तित्व अपना 
मैं कहाँ तक चलूँगी
कहाँ रुकूँगी या कुदूंगी शायद
सब गिरती बूदों सा बस है, 
कभी कभी दिखाई देता है
कभी बस सुनाई 
पकड़ना इन्हें नामुमकिन है। 

मैं छोड़कर सब एक दिन 
पहाड़ों के हवाले हो जाऊँगी
ये बात जैसे जानता था हर कोई
सिवाय एक मेरे। 



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