Thursday, April 28, 2022

बचीखुची

 

मैं माथे से शुरू करती हूँ
पहुँचती हूँ छाती तक 
खोजती हूँ दिल अपना 
और कुछ एक, कुछ भी भाव 
और हैरान होती हूँ तब
जब सचमुच मेरे हाथ में मुझे महसूस होता है कुछ।

कहने और सुनने से पार 
एक दुनिया बनाई मैंने
महसूस करने और व्यक्त करने से दूर 
खुद को भी ना करूँ महसूस 
कि खो जाऊं, जैसे सो जाऊं
जैसे बस देखूँ तो बस इतना 
कि ना होना मेरा। 

घटनाएं घटती हैं 
अक्सर एक ही घटना बार बार 
इंसान मरता है 
अक्सर एक ही इंसान अनेकों बार 
हम खोजते हैं कुछ 
और बावजूद इसके कि मिल जाता है 
हमारी खोज खत्म नहीं होती। 

उम्मीद भरी एक कविता मैंने लिखनी चाही 
और खो दी सारी बचीखुची उम्मीद उस कोशिश में।



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