कितना वक़्त लगता है
खुद से कहने में
कि जो हुआ, ग़लत हुआ
मगर अब वो बीत चूका है
और कल या आज भी बल्कि
जो है, वो अलग है
कि उसे आज अलग आँखों,
नए नज़रिये से देखो
यूँ तो एक मिनट ही शायद
चंद सेकंड
पर कभी कभी एक साल, कभी कभी कई
एक उम्र आप कुछ महीनो में ही जी लेते हो अक्सर
एक साल में कई सदियाँ जैसे
कि कल ही तो थे आप उस बच्चे जैसे
हँसते खेलते दौड़ते कूदते
और अचानक यूँ सहमा हुआ रहना
कि एक दिन या महीने का सिर्फ ये फर्क कहाँ है
सबसे गहरी चोट वहां से आती है
जहाँ सबसे ज़्यादा महफूज़ महसूस किया था कभी
सबसे गहरा घाव वो
जो मिला हो उससे
जिसके दरअसल आप घाव भरने निकले थे
और ऐसे मासूमियत करवट लेती है
आप बस शांत हो जाते हो
कभी कभी कुछ बिखरता नहीं है
टूटता जाता है बस और होता जाता है जमा एक जगह
कि शायद जगह ही नहीं है इतनी
कि बिखर पाए
आप खोजते हो जवाब मगर
क्या हासिल
बेवकूफी और मासूमियत में फर्क है भी अगर
तो कितना ज़रा सा|
No comments:
Post a Comment