ऐसा तो नहीं है
की तुम्हारे नहीं होने से
सुबह नहीं होती
दिन शाम में मिलने से मना करता
या धड़कन धीमी पड़ जाती मेरी
झील की ठंडक कम होती
या समंदर नदी को चाहना छोड़ देता
ऐसा कुछ भी नहीं होता
जो बदल सकता मायने जीने के
लेकिन फिर भी
चाहती तो थी मैं, कि तुम रहो
हर बार
थककर जब झुकती
तो चाहती, झुकूं तुम पर
कोशिश करती मगर
तुम खिसक जाते ज़रा ज़रा, दूर दूर
थोड़ा वक़्त लेकर जब तक तुम आते वापस
मैं रुख बदल चुकी होती
अब मैं तारे गिन रही हूँ
वहां, जहाँ देखा करती थी बादल पहले
ऐसा था वो चक्कर गोल
जब तुम थे
या नहीं थे
"दो लोग अच्छे या बुरे नहीं होते
एक दूसरे के नहीं होते बस शायद"
अंत में यही कहा गया
सुबह दिन में
और दिन शाम में
वैसे ही मिलते हैं जैसे मिलते रहे सदा
बस मेरा इंतज़ार ख़त्म होता है यहाँ|
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