Monday, April 4, 2016

बहाव

एक वक़्त है
जो जम गया है
जिसे ठहरना है वहीँ
न खुशबू है उसकी
न मौजूदगी
एक ठंडक है मुझमें
तुम्हे भाइ नहीं कभी जो
मुझे बचाती रही सदा

कब कलम किस तरफ मुड़ जाए
इंतज़ार है शायद
नाउम्मीदी थोड़ी, मगर भरोसा
सोचना चाहते हुए भी आप
बस रोकते हो खुद को
उस लम्हे में
कैद नहीं हैं
आज़ादी को नाकारा गया है
हमने खुद को सौंपा उन्हें
जिन्हें दिखाई दिया बस तो कोहरा
गुज़रती हुई कुछ ठंडी रातों का
वक़्त जो ठहरा है
चाहता है आज़ादी जैसे
और हम हुए जाते हैं स्वार्थी
और स्वार्थी


वजूद अटके से हैं
सांसे ज़िद्द करतीं हैं
और हम दोनों
दूर से देखे इन्द्रधनुष से उम्मीदें बटोरते हुए
सँभालते हुए गुरुर अपना अपना
खोते जाते हैं कुछ ऐसा
जो हमें नहीं मिलेगा कभी
और जानते हैं दोनों
मगर वक़्त ठहरा है
और हम वक़्त को धोखा देने की बेवकूफ कोशिश में
अटकते हैं कहीं ऐसे
की अब डोर नहीं है
मगर बर्फ है
पिघलती है मोती बनकर
और बनाती है आसमान को सफ़ेद सा थोड़ा
नीला दिल को मेरे
और यूँ ही बस
इस वक़्त के जमने में 
मेरा होना न होना
ठहरना न ठहरना
खोता सा जाता है

सब बह रहा है जैसे
एक नदी सी दिखती लकीर है हाथ में
मैं हाथों को ऊपर उठाकर देखती हूँ
शांत होकर सोचना चाहती हूँ कुछ
मगर देखती हूँ बस
आसमान का वो रंग
जो मेरे हाथों से मिंलने लगा है अब

वक़्त का ठहरना या जमना
चिपक गया है आप में
और आप अब कैसे भी देखे दुनिया को
लेकिन क्या अपने पैरों की ओर देखते हुए
आप पहचान पाएंगे कुछ सच
और उनके टिकने की एक जगह?



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