Wednesday, April 13, 2016

अनगिनत

सभांलकर रखने का मन नहीं होता कुछ
बस बिखर जाए सब
और हो जाए लापता
एक दिन आये लौटकर 
और धीरे से हाथ रखकर कांधे पर पूछे, 
क्या हाल?, सब अच्छा ?

एक जंगल  जिसके पेड़ जल चुके हैं
जिसकी आवाज़ें धोखा दे चुकी हैं उसे
वो बीत चूका है
मगर मनाही है बीतने की

गुज़रना आसान नहीं है
जो दर्द हो दिल में
तो कोई भी लम्हा दे सकता है धोखा

एक शाम खिली सी
सूखी सी
मांगती हुई पानी
एक बूँद
तारों से बात करते हुए
बचपन को याद करते हुए
रचते हुए धोखे पहाड़ों के खिलाफ
मैं हूँ इंतज़ार में
की आज चाँद आये, पूरा

समंदर ही इंतज़ार नहीं करता है क्यूंकि बस

रेत पर लिखते हुए नाम
और कुछ लम्हें
गुज़र जाता है एक घर सामने से
कुछ परछाइयाँ
कुछ सुबहें
और एक मासूम लड़की
जिसकी चीख की आई आवाज़
जैसे बजता हो खिलौना कोई

दिन भी हैं
शामें भी
सुबहें अनगिनत
और रातें
मैं कैसे बचाऊं खुद को डूबने से
कोई तरीका ही नहीं बचा है अब
कि छलांग लगाकर बस भाग पाती मैं

पापा की उंगली
उनका ना कहा प्यार
माँ का हमेशा साथ देना
और भाई का उत्साह और गर्व
याद नहीं आता
चलता है साथ साथ

वो जी रही है
बस सांसें हैं की रूकती है बीच बीच में कभी
दुःख को वो पकड़ नहीं पाई कभी
मगर दुःख है कि जकड़ा है उसे ।



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