Saturday, February 14, 2015

शांत..

घंटों चुप रहना और फिर शांति से कहना कुछ
बड़बड़ाना खुद में और चाहना रोना
मगर रो ना पाना

गले में पत्थर अटका है एक
न निगल पाते हैं
न हटा पाते हैं
पाप किया कभी या पुण्य
सब बराबर इस लम्हें में
रो पाएं एक जान तो बच जाये एक जहाँन

बेबसी दहाड़ती है अंदर आसमान में कहीं
तरस खाते बच्चे एक दूसरे पर
मगर चाहते हुए आज़ादी
मांगते हुए बचपन
टकराते हुए मासूमियत से
यूँही अमर हो जाने की चाहत के बीच
यूँ घोट रहें हैं गला आवाज़ों का
खिड़की के बाहर पेड़
हवा नहीं, नाउम्मीदी फैंकता है भीतर
हरा रंग पीकर झूमना चाहते हैं हम
होना चाहते हैं एक गाय
पहाड़ से फिसलो कभी तो रुकना मत
खाई से मिलना और करना उम्मीद
अँधेरी गहरी खाई की उस तड़प को जीने के बाद
हम हो पाएंगे नम
दुःख टपकना बंद होगा
और मोती की तरह पिरौना इस घुटन को गले में
और फिर छाती में
और यूँ पेट तक पहुंचना इसका
सब रुक पाए शायद
सब हों पाऐं आज़ाद

नम हो पाना ज़िन्दगी से दूर है जितना
उतना ही ज़िंदा भी रखे है हमें।



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