Saturday, March 2, 2019

कभी बुखार तो कभी तूफान हूँ ..


कभी बुखार तो कभी तूफान हूँ 
कभी झील तो कभी आसमान 
कभी तकलीफ हूँ 
जैसे सुई अटकी हुई गले में 
कभी मरहम हूँ 
खुद को ठीक करता हुआ 

कभी कहर हूँ जैसे कोई 
कभी चिंघाड़ हूँ 
मैं धरती हूँ कभी 
और कभी आग हूँ 

मैंने जलाया है खुद को 
और पाला भी है 
गला जकड़ा है कभी खुद का 
कि अब नहीं गुड़िया 
और नहीं रोना 
तो कभी रुलाया है खुद को डाँट डाँटकर घंटों 

मैं तकलीफ हूँ 
बता चुकी हूँ पहले भी 
लेकिन ख़ुशी भी हूँ 
बच्चे की हंसी और मासूमियत हूँ 
दुनिया से खो चुका बरसों पहले जो, 
कोमल पाक स्पर्श हूँ 
कविता के बीचोंबीच इस्तेमाल होना वाला,
सबसे नाज़ुक शब्द हूँ 
सब कुछ बीत जाने के बाद 
बच जाने वाला भाव हूँ 
कभी कभी बस अभाव हूँ 
रात में जागकर अचानक इधर उधर देखने वाला लम्हा हूँ 
कुत्तों के भौंकने की आवाज़ और चांदनी भी हूँ मैं 

हर लम्हें में बीत रही हूँ 
और जन्म भी ले रही हूँ हर लम्हें में 
मैं खोज पाऊं किसी रोज़ की क्या हूँ 
तो शायद बस एक धड़कन हूँ 
रूकती है, चलती है.. 

मैं रेल की पटरी हूँ 
मगर वो सायरन भी हूँ 
पानी भरने उतरी लंगड़ाती बुढ़िया हूँ 
और बीमार मगर चहकता बच्चा भी 
मैं ख्याल हूँ एक बस 
और भटकाव हूँ 
मगर मैं हूँ 
पर शायद नहीं हूँ 
जिस लम्हें में नहीं हूँ 
उसी लम्हें में तो दरअसल मैं हूँ! 



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