मैं फ़ोन लगाती हूँ माँ को
वो सोने जा रही हैं शायद,
रोज़ की ही तरह थकावट है आवाज़ में
मगर मैं
पूछने लगती हूँ उनसे सवाल
कि मेरे नाम क्या क्या थे बचपन में?
मैंने किस किस को किया था कितना परेशान,
कि कब लगी थी सर पर चोट,
बातें जो मैं सुन चुकी हूं लाखों बार
जो रट चुकीं हैं मुझे शब्द दर शब्द
कि मैं जानती हूँ माँ की आवाज़ के मोड़
पहचानती हूँ कि कैसे मुस्कुरा रही हैं वो कौन से किस्से पे
मैं जानती हूँ उन्हें मेरी याद आने लगी है बेहद अब
मगर मैं...
होती जाती हूँ क्रूर और स्वार्थी
और सुनती जाती हूँ बेसबब...
एक घंटा बात करने के बाद
मैं कहती हूँ, ’आप सो जाओ माँ,
कि थके हो दिन भर के'
वो फ़ोन रख देती हैं
और लेटे लेटे फिर सोचती हैं
अपनी बेवकूफ बेटी के बारे में,
शायद घंटों,
उन्हें कब जाकर नींद आती है उसके बाद,
कल की बात हमारी इसी बात से शुरू होगी
और यूँ हर दिन
हज़ारों सालों से लगातार
मैंने बचाया है खुद को पागल होने से
अपनी माँ की नींद के बदले।
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