जब हार गयी मैं डरते डरते , लड़ते लड़ते और रोकर
मेंने हंसना शुरू किया अपने हाल पर
और पाया खुद को एक जंगल के बीच में
जिसमे लोग बस चले जा रहे थे
रुकने जैसी कोई चीज़ जैसे बनी ही न हो कभी
जैसे कदम रखते जाना श्राप हो कोई
यहां रुकी हुई बस मैं थी
और मुझे लगता है
वो सब जो चल रहे थे लगातार
उन्होंने ज़रूर मुझे मूर्ति समझा होगा कोई
काश मैं मूर्ति होती
और काश मेरे अंदर न घटता इतना सब
की काश मेरे पास होता एक घर
तब मूर्ति बनना भी मंज़ूर होता मुझे ज़रूर
मैं हार चुकी थी अपने अंदर अब
और कुछ लोग कहते हैं मेरे आसपास
की उनका असली घर कोई एक इंसान है
और मुझे अचानक ऐसा लगा आज
कि मेरे लिए मेरा घर ज़रूर एक इंसान है।
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