एक दिन आएगा
जब मुझे फर्क नहीं पड़ेगा
और तब, कर लेना कुछ भी तुम..
जान को गले में बांधकर
कांपते नीले होंठों से कहा था
ऐसे जैसे मरने से पहले
आखिरी शब्द हों
आखिरी नहीं थे मगर
ये होना था बार बार
बीतना था एक ही लम्हें को कईं कईं बार
मरने से पहले जीना था
जीना था एक उम्र को
जिसमे सफ़ेद पहले बीत चूका था
हर रंग में मिलाया था काले हमने
रात और दिन सब उसके नाम के थे
और उसके शक, सब मेरे नाम के
जिस घड़े में प्यार भरा मैंने
नफरत की सबसे पहली काई जमी उसी में
और असहज हूँ मैं थोड़ी,
हैरान नहीं मगर
पानी की मोहताज नहीं
जलते जाना अच्छा है आज..
थोड़ा ओर, ज़रा सा ओर..
सुनो,
किया बहुत बार प्यार से सम्बोधित तुम्हें
प्यार - पाक, आत्मीय, निर्मल
तुम्हारी समझ से परे..
..मगर किया
लेकिन अब सुनो,
आज कुछ नहीं तुम
कुछ भी नहीं..
और इसकी गवाह है
मिटटी के ये आखिरी कण मेरी मुठ्ठी में
तुम जिओ खूब
रह सको तो रहो खुश
दुनिया देखो.. और देखो खुद को भी ज़रा
मैं पलट चुकी हूँ रास्ता
और तुम खोज पाओगे नहीं मुझे अब
और हाँ,
सज़ा ये नहीं है तुम्हारी।
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