Saturday, May 20, 2017

रात

जिस आत्मा को बड़े प्यार से
सहमे कदमो से धीमे धीमे बढ़कर छुआ था उसने
लौटते वक़्त काटता हुआ लौटा
चिंगारियां जैसे बिखरी हों शरीर पर
और कोई छिड़के जा रहा है नमक, लगातार

एक कल और एक आज
मिलते हैं जहाँ
वक़्त वो अच्छा नहीं

बार बार चाहती हुई बोलना कुछ मैं
बड़बड़ाती हूँ कुछ
शब्द इतने दूर कैसे हो गए?
लौट जाती हूँ

कसूर क्या है
कमी क्या
सब फ़िज़ूल है इस लम्हें में
बस साँस है की मांगती है एक खुशबू

खुद के ही हाथों मरना
हथियार ज़रूर उसका है
ये भी एक वक़्त है, गुज़र जायेगा

सुनो,
तुम जो ये दूर दूर जा रहे हो न,
तकलीफ देता है मुझे
इतना ही कहना था शायद

बंद होंठों की जुबां
और भारी दिल की तड़प
कोई ना समझे
तो आप उसे बेवफा नहीं कहते।



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