सुनो,
वक़्त
के दो सिरे हैं
एक, जिसमे
मैं हूँ
प्यार
में
निहारती
हुई तुम्हें
दूसरा, जिसमे
मैं पीट रही हूँ दरवाजा, बेधड़क
एक
सुबह थी
मैं
आँख खोलकर देखती तो तुम सामने होते
'काजल क्यों नहीं लगाती हो
हमेशा?'
सुबह
से पहले रात
जब
मैं गिनती थी लटें बालों में
जो
बालियां बनाया करती कानो पर
या
फिर घुँघरू शायद
और
सोते थे तुम जैसे सुकून सोता हो
जानकर
शायद की चाँद करता है पहरेदारी
एक
रात वो भी
जब
आते थे तुम जैसे बर्फ से गुज़र कर
सुख, मैं
कहती थी
फिर
एक शाम
या
रात
कि
अचानक जैसे घटा कुछ
और
बस अब याद इतना
कि उसके बाद शुरुआत हुई एक नए सिरे की
जो
दिल नवाज़े तुम्हें,
उसे
नोच दो, शायद सीखा तुमने
आत्मा
पर दाग हैं, देखा मैंने
जीते
जीते साँसों में धूल बढ़ने लगती है
दिल
में घाव है
आत्मा
बर्फ हुई जाती है
दोनों
सिरे मिलते हैं जहाँ
और
जब जब
मृत्यु, मुझपर
हंसकर लौट जाती है
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