हाथों को मुस्कुराते हुए
सपने में ही देखा था उसने
छोटे छोटे हाथ
गला नहीं दबा सकते थे
एक काले दिन में कभी
एक फैंसला जो किया था
वो बीता ही नहीं कभी
बार बार आया वो दिन फिर
और दबाया गला
बड़बड़ाती जाती एक लड़की,
दूसरी बस ताकती उसको
दीवारें बातें नहीं कर रही थी उस रात
हेडफोन्स कानो पर चढ़ाकर कोशिश की दर्द को समेटने की
कभी रोए फैंसलों पर छुपकर
तो कभी ताका एक चेहरा
ढका खुद को और पिया भी थोड़ा
जैसे जैसे शब्द निकलते होंठों से
वो ठंडी पड़ती जाती और और
मगर बूंदें माथे पर फिर भी बढ़ती ही रहीं
रास्ते पर चलते चलते अचानक पैर छोटे होने लगते
वो देखती दुनिया को जैसे पहली बार
रूकती थोड़ा
मुड़ना चाहती पीछे की तरफ
मगर नहीं
एक हाथ छूते छूते गुज़र जाता जैसे
नन्हे हाथों की आती खुशबुएँ
चलना जैसे रुकना
रुकना जैसे मरना, बार बार
जीवन है?
रंग हैं?
बेबुनियाद, बेमतलब सवाल।
बचपन नहीं था ये
बड़ा होना भी नहीं था
चलना था मगर
और छीलना था थोड़ा थोड़ा
कुछ जाने लेनी थी
पेट चीरने थे कई बार
लिखा गया था पहले ही सब कुछ
बस दोहराना था, जैसे
एक वक़्त ठहर गया है भीतर
गुज़रे तो पकड़ती है वो
ठहरे तो तड़प
कुछ जाना तो बस इतना,
मरते नहीं हैं आप
मारकर खुद को
एक हिस्सा आपका जन्म लेता है
बार बार
अलग अलग जगहें हैं
किस्से सब एक से
दर्द में बने रिश्ते लम्बे ठहरतें हैं |
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