Wednesday, January 28, 2015

गर्म रेत में सांस लेना और देखना चाँद को उगते हुए

उधार सी मांगी इन साँसों को खर्च करने में डर लगता है जैसे
आसमान से कुछ टपकता है
गिरता है आँख में मेरी
पसीजता है रूह को ऐसे कि
अब ज़मीन से मोहब्बत होती है गहरी

मिट्टी जो खाई है बचपन में
पेट में नहीं, दिमाग में बस गई है
गुलाब की खुशबू बालों में है
पाँव में है एक आवाज़
गुनगुनाहट सी जैसे

आदतों और प्यार के शिकार हम
अकेलेपन में जो सांस लेते रहे
गिनना चाहिए था उन साँसों को

टहनियाँ यूँ उगी हैं कुछ पेड़ पर
कि जंगल बना है या भंवर
समझ रेत में दब गई है कहीं
गर्म रेत में सांस लेना और
देखना चाँद को उगते हुए
शहीद होने का सपना पाला था बचपन में
देश से प्यार ना हुआ तो हुए नापाक हम

आप समझेंगे नहीं
और मैं समझा नहीं पाऊँगी
लिख लूँ कुछ भी
खोद लूँ कुएँ गहरे और गहरे कितने भी
मगर होना है मुझे एक झूठ शायद
एक कालापन ओढ़ना होगा अंत से पहले
और मानना होगा हर उस बात को सही
जिसकी आँखों में आँखें डालकर एक दिन
बताया था मैंने उसके अँधेरे को ग़लत
जिसे देखा था घिन खाते हुए
और पैर रखकर कुचला था कुछ कालीनों को
अंत से ठीक थोड़े समय पहले
मुझे ओढ़नी होगी कुछ कालीनें
बचना होगा ठण्ड से
और बितानी होंगी कुछ तन्हा रातें एक कोठरी में
बातें करूँगी जब अँधेरे से गहरी गहरी मैं
तब समझूंगी सही ग़लत के पार के उस आसमान को
और सफ़ेद रंग ओढ़कर आसमानी ख्वाब देखते हुए यूँ लूंगी मैं
एक आखिरी पाक सांस

सब समान
सब समतल
आप अच्छे बुरे नहीं
एक इंसान थे हमेशा
बस।



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