उधार सी मांगी इन साँसों को खर्च करने में डर लगता है जैसे
आसमान से कुछ टपकता है
गिरता है आँख में मेरी
पसीजता है रूह को ऐसे कि
अब ज़मीन से मोहब्बत होती है गहरी
मिट्टी जो खाई है बचपन में
पेट में नहीं, दिमाग में बस गई है
गुलाब की खुशबू बालों में है
पाँव में है एक आवाज़
गुनगुनाहट सी जैसे
आदतों और प्यार के शिकार हम
अकेलेपन में जो सांस लेते रहे
गिनना चाहिए था उन साँसों को
टहनियाँ यूँ उगी हैं कुछ पेड़ पर
कि जंगल बना है या भंवर
समझ रेत में दब गई है कहीं
गर्म रेत में सांस लेना और
देखना चाँद को उगते हुए
शहीद होने का सपना पाला था बचपन में
देश से प्यार ना हुआ तो
हुए नापाक हम
आप समझेंगे नहीं
और मैं समझा नहीं पाऊँगी
लिख लूँ कुछ भी
खोद लूँ कुएँ गहरे और गहरे कितने भी
मगर होना है मुझे एक झूठ शायद
एक कालापन ओढ़ना होगा अंत से पहले
और मानना होगा हर उस बात को सही
जिसकी आँखों में आँखें डालकर एक दिन
बताया था मैंने उसके अँधेरे को ग़लत
जिसे देखा था घिन खाते हुए
और पैर रखकर कुचला था कुछ कालीनों को
अंत से ठीक थोड़े समय पहले
मुझे ओढ़नी होगी कुछ कालीनें
बचना होगा ठण्ड से
और बितानी होंगी कुछ तन्हा रातें एक कोठरी में
बातें करूँगी जब अँधेरे से गहरी गहरी मैं
तब समझूंगी सही ग़लत के पार के उस आसमान को
और सफ़ेद रंग ओढ़कर आसमानी ख्वाब देखते हुए यूँ लूंगी मैं
एक आखिरी पाक सांस
सब समान
सब समतल
आप अच्छे बुरे नहीं
एक इंसान थे हमेशा
बस।
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